भरी भरी सी झील में,
आधे आधे पाँव डुबाए,
दोनों यूँही देर तलक
गीले सूखे बैठे रहे ।
झील में से उगा हुआ
बगुला वो खड़ा हुआ 
हवा और पानी के बीच
घंटों तक बहता रहा ।
आँखों के एक कोने से
झील का ख़ामोश पानी
बगुले का सारा रंग
बूँद बूँद सब पी गया ।
और देखते ही देखते
एक दूसरे पे बिछी हुई
परछाइयों में बसे हुए
उन दो कँधों की वादी में
शाम का सूरज डूब गया ।
फिर उन दो हाथों ने मिल कर
साँझ और शब के बीच
एक छोटा सा पुल बनाया था ।
जिसपे चंद मासूम से लम्हों को
उँगलियाँ थामकर चलाया था ।
जिसे देखने के लिए बगुला
गर्दन ऊँची कर के आता था ।
पँखों को झटकाकर फिर
पुल को और हिलाता था ।
चलते चलाते यूँही
जब थक गए दोनों
और भार सपनों का 
पलकों से, 
धड़कन तक उतर आया था।
वो छोड़कर अपना सिरा
जा मिली दूजे सिरे से ।
और सारे लम्हें बीच के
दबे पाँव चुप चाप -
बगुले के पँखों पर होकर सवार
बुलाने रात को निकल पड़े ।
ऐसे सटकर बैठे थे दोनों
के वादी में उस रात
वक़्त बहुत धीमे गुज़रा था ।
जब सर फिसला था कंधे से
तब तारों के बीच वहाँ
एक चाँद अधूरा लुढ़का था ।
वो रात बहुत लम्बी थी
और तारे बहुत छोटे।
तय हुआ था ये तब
के बारी बारी सब,
अपना-अपना आकाश घुमाकर
कुछ देर झील पर, पसर जाएँगे  ।
और जिन्हें है इंतज़ार
तारों के टूटने का
उन्हें रात भर जगाएँगे ।
एक तरफ वो दोनों
अपनी उड़ान समेटे 
कई क़ायनात भटकते रहे ।
दूसरी तरफ़ वो तारे,
झील की छत पर लेटे,
घंटों आस्मां तकते रहे ।
और देखते रहे उन सैयारों को
जो तलाश में उनकी
गलियां कहकशाओं की छानते रहे । 
जागता बगुला उन्हें
जैसे ही चुगने जाता था ।
कंकड़ मार पानी में,
दोनों ने तब -
उन तारों को भगाया था ।
रातभर बैठे ज़मीन पे
वो तारे उड़ाते रहे । 
जाने कितनी रातों की
 
यूँ नीदें जगाते रहे ।
दोनों चुप से बैठे थे इतने
जैसे सब कह दिया था पहले
या कहना चाहा था बहुत कुछ
पर लफ़्ज़ों का भार कौन सहे !
 
रातभर ये खेल
सब ने मिलकर खेला
पर ठहर गए सब जब
सुबह को आते देखा ।
छूते ही जिसे
रात का आस्मां 
झील में पिघल गया ।
और जाल किरणों का
बिछने से पहले
तारों का झुण्ड उड़ गया ।
पौ फ़टने की आवाज़
जब दोनों को आई थी
पर लौटने की बात
बस एक ने दोहराई थी ।
उस पल लगा झील ने
एक गहरी करवट ली थी,
ख़्वाब देखा था शायद
और अब आँखें खोली थी ।
आखिर जाने वाला चला गया,
सिरा पुल का अधूरा छोड़कर ।
जिससे लटकी रही वो बात
जो चली थी रात रोककर । 
रात के कंकड़, उसके संग
झील किनारे बिखरे थे।
अधूरी किसी ग़ज़ल के जैसे
वो चंद मुरझाए मिसरे थे ।
जब पुल के नीचे 
बहता ख़ाली वक़्त
साँस तक भर आया था ।
गुज़रे लम्हों की राख बहा
उसने संदेसा भिजवाया था । 
उस कोरी सी झील में
वो धीमे से अपनी बातें
पानी में बोती रही ।
जिन्हें दूजे किनारे बगुले ने, 
चोंच लगा झील के पर्दे पे 
चुपके से सारी सुन ली ।
उस सुबह, झील में 
वो सफ़ेद बगुला
गेरुई सुबह ओढ़े
एक टाँग पर खड़ा रहा ।
मन्नत माँगी हो जैसे
हवा पे कुछ लिखता रहा । 
वो बिन वादी की सुबह में
एक पहाड़ सी सिमटी रही। 
कई टूटे तारों से बुनी,
कुछ राहें पुरानी चुनती रही ।